अक्षय तृतीया वैशाख मास (मध्य अप्रैल से मध्य मई) में मनाई जाती है। इस दिन किए गए सभी शुभ कार्यों से अक्षय फल की प्राप्ति होती है, इसलिए इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। इस दिन भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी और कुबेर जी की पूजा की जाती है और किसी भी मांगलिक कार्य की शुरुआत की जाती है।
- अक्षय तृतीया का शाब्दिक अर्थ है अक्षय यानि की “जिसका क्षय न हो” और तृतीय का अर्थ “तीसरे दिन” से है।
- अक्षय तृतीया वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है,
- इसीलिए इस दिन पर किए किए हवंन, पूजा, दानपुण्य, का कभी भी क्षय नहीं होता, और पूर्ण फल की प्राप्ति होती है।
- इसको को अखा तीज के नाम से भी जाना जाता है।
- अक्षय तृतीय के दिन बिना किसी मुहूर्त के नए मकान की खरीदारी, जमीन, वाहन, शादी विवाह या कोई भी मांगलिक कार्य को कर सकते है।
- अक्षय तृतीया पर पित्रों को पिंड, दान पुण्य करने का भी विधान है अगर कोई व्यक्ति करता है तो इसका फल भी अक्षय ही होता है।
- अक्षय तृतीय के दिन शुभ दिन पर सोना खरीदना अत्यंत शुभ होता है।
अक्षय तृतीय 2025 | Akshaya Tritiya 2025
साल 2025 मे अक्षय तृतीय 30 अप्रैल दिन बुधवार के दिन पड़ेगा। इस दिन पूजा का शुभ मुहूर्त सुबह 5:41 से रात 12:18 तक रहेगा है।
अक्षय तृतीया पूजा विधि
- अक्षय तृतीया के दिन सर्वप्रथम प्रातः काल स्नान आदि कर पीले रंग का वस्त्र धरण करना चाहिए।
- इसके बाद श्री हरि की मूर्ति, माता लक्ष्मी, कुबेर जी को गंगाजल से स्नान कराये।
- इसके बाद घी का दीपक जलाये।
- अब भगवान को तिलक व अक्षत चढ़ाए और उन्हे फूल माला अर्पित करे।
- इसके बाद भगवान को पीले रंग की मिठाई या फल का भोग लगाए।
- इसके बाद श्री हरि की कथा करे।
- और अंत में श्री हरि की आरती करना चाहिए।
अक्षय तृतीय प्रारंभ होने की कहानी
प्राचीन काल में धर्मदास नाम का एक वैश्य था, वह बहुत गरीब था परंतु उसका स्वभाव अत्यंत दयालु था। धर्मदास अपनी अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए हमेशा चिंतित रहता था। एक बार किसी ने धर्मदास को अक्षय तृतीया के बारे में उसे बताया, की अक्षय तृतीय के दिन भगवान विष्णु माता लक्ष्मी की पूजा व दानपुण्य कार्यों को करने से उसके सभी कष्टों का नाश होता है।
परंतु धर्मदास की पत्नी दान पुण्य कम करने को बोलती थी, क्यूकी उनके पास खुद अन्न व खाद्य पदार्थों व धन की कमी थी। परंतु धर्मदास अपनी पत्नी की नहीं सुनता और वह हर साल अक्षय तृतीया को भगवान श्री की पूजा व दान पुण्य करता था।
जीवन के अंतिम समय में वह अत्यंत रोगों व कष्टों सहित भगवान की पूजा की। और एक दिन उसका देहांत हो जाता है, इस जन्म में तो उसका कष्टों का अंत नहीं हुआ परंतु उसके पुण्य कर्मों और भगवान की आशीर्वाद से वह अगले जन्म में वह कुशवाती नरेश बना।