एक दिन महाराज विक्रमादित्य शिकार करने वन गए थे, तो महारानी संजना महल में अकेली थीं। उसी समय देवगुरु बृहस्पति साधु का वेश धारण कर महल में भिक्षा मांगने पहुंचे। महारानी ने भिक्षा देने से इंकार कर दिया और कहा, “हे साधु महाराज, मैं दान-पुण्य से तंग आ चुकी हूँ। मेरा पति सारा धन लुटा देता है। मेरी इच्छा है कि हमारा सारा धन नष्ट हो जाए ताकि मुझे यह परेशानी न सहनी पड़े।”
साधु बाबा ने कहा, “देवी, धन और संतान सभी चाहते हैं। अगर आपके पास अधिक धन है, तो भूखों को भोजन दीजिये, प्यासों को पानी पिलाये, मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं बनवाइए। निर्धन कन्याओं का विवाह कराइये। इन कार्यों से आपका यश लोक-परलोक में फैलेगा।”
लेकिन महारानी पर उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने कहा, “मुझे ऐसा धन नहीं चाहिए जिसे हर जगह बांटना पड़े।”
साधु बाबा ने कहा, “अगर यह तुम्हारी इच्छा है, तो तथास्तु! हर गुरुवार को घर लीपकर पीली मिट्टी से सिर धोकर नहाना और भट्टी चढ़ाकर कपड़े धोना। इससे तुम्हारा सारा धन खत्म हो जाएगा।” यह कहकर साधु महाराज वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए।
महारानी ने साधु के कहे अनुसार काम करना शुरू किया। केवल तीन गुरुवार बीतते ही उनका सारा धन नष्ट हो गया और राजा का परिवार भोजन के लिए तरसने लगा।
एक दिन महाराज विक्रमादित्य ने महारानी से कहा, “हे संजना, तुम यहीं रहो। मैं दूसरे देश जाता हूँ क्योंकि यहाँ पर सभी मुझे जानते हैं। इसलिए मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता।” यह कहकर राजा परदेश चला गया। वहाँ वह वन से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह वह अपना जीवन काटने लगा। इधर, राजा के परदेश जाते ही महारानी और दासी दुःखी रहने लगीं।
एक बार जब महारानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो महारानी ने दासी से कहा, “हे दासी! पास के नगर में मेरी बहिन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और कुछ ले आ, ताकि कुछ गुजर-बसर हो सके।” दासी महारानी की बहिन के पास गई।
उस दिन गुरुवार था और महारानी की बहिन गुरुवार व्रत की कथा और आरती का पाठ कर रही थी। दासी ने महारानी का संदेश दिया, लेकिन महारानी की बहिन व्यस्त थी उसने कोई उत्तर नहीं दिया। दासी वापस आकर महारानी को सारी बात बताई। सुनकर महारानी ने अपने भाग्य को कोसा।
उधर, महारानी की बहिन ने सोचा कि उसकी बहिन की दासी आई थी और वह बहुत दुःखी हुई होगी। कथा समाप्त कर वह अपनी बहिन के घर आई और कहने लगी, “हे बहिन! मैं गुरुवार व्रत कर रही थी। तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी, परंतु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। कहो, दासी क्यों आई थी?”
महारानी बोली, “बहिन, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं है।” कहते-कहते महारानी की आंखें भर आईं। उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने की बात अपनी बहिन को विस्तार से सुना दी।
महारानी की बहिन ने कहा, “देखो बहिन, भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं। देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो।”
पहले तो महारानी को विश्वास नहीं हुआ, पर बहिन के आग्रह पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा। सचमुच, दासी को अनाज से भरा एक घड़ा मिला। यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई।
दासी महारानी से कहने लगी, “हे महारानी! जब हमें भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही करते हैं। इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सकें।” तब महारानी ने अपनी बहिन से गुरुवार व्रत के बारे में पूछा।
उसकी बहिन ने बताया, “गुरुवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से भगवान विष्णु का केले की जड़ में पूजन करें, दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें। इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं।” व्रत और पूजन विधि बताकर बहिन अपने घर लौट गई।
सात दिन बाद गुरुवार आया, तो महारानी और दासी ने व्रत रखा। वे घुड़साल से चना और गुड़ लेकर आईं और उससे केले की जड़ तथा भगवान विष्णु का पूजन किया। पीला भोजन कहाँ से आए, इस चिंता में दोनों बहुत दुःखी थीं। बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न होकर एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दासी को दे गए। भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर महारानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया।
यह सब होने के बाद वे सभी गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगीं। बृहस्पतिदेव की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई। लेकिन महारानी फिर से आलसी हो गईं।
दासी ने कहा, “देखो महारानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलसी करती थीं, जिससे सारा धन नष्ट हो गया था। अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से धन मिला है, तो तुम्हें फिर से आलस्य हो रहा है।”
दासी ने महारानी को समझाया कि बड़ी मुसीबतों के बाद यह धन मिला है, इसलिए दान-पुण्य करना चाहिए। भूखों को भोजन कराना चाहिए और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा और स्वर्ग की प्राप्ति होगी। दासी की बात मानकर महारानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगीं, जिससे पूरे नगर में उनका यश फैलने लगा।
बृहस्पतिवार व्रत कथा के बाद श्रद्धा के साथ बृहस्पतिवार व्रत आरती की जानी चाहिए। इसके बाद प्रसाद बांटकर ग्रहण करना चाहिए।
एक दिन राजा विक्रमादित्य दुःखी होकर जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठ गए। बृहस्पतिवार का दिन था, और एकाएक उन्होंने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए। वह साधु वेष में स्वयं बृहस्पति देवता थे।
लकड़हारे के सामने आकर बोले, “हे लकड़हारे, इस सुनसान जंगल में तुम ऐसे क्यों बैठे हो?”
लकड़हारे ने हाथ जोड़कर कहा, “महात्मा जी, आप सब कुछ जानते हैं। मैं क्या कहूँ?” और रोने लगे। साधु ने कहा, “तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिवार के दिन बृहस्पति भगवान का निरादर किया है, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हो गई। अब तुम चिन्ता को दूर करके मेरे कहने पर चलो, तो तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जाएंगे और भगवान पहले से भी अधिक सम्पत्ति देंगे। बृहस्पति के दिन कथा किया करो।”
साधु के वचन सुनकर लकड़हारे ने कहा, “हे प्रभो, मुझे लकड़ी बेचकर इतना पैसा नहीं मिलता कि भोजन के उपरान्त कुछ बचा सकूं।”
साधु ने कहा, “तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। बृहस्पति के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियाँ लेकर शहर जाओ। तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा, जिससे तुम भली-भांति भोजन कर सकोगे और बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जाएगा।” इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए।
फिर वही बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया और उसे उस दिन और दिनों से अधिक पैसा मिला। राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर गुरुवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सारे कष्ट दूर हो गए। परन्तु जब दुबारा गुरुवार आया, तो वह बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए।
उसी दिन नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया और शहर में यह घोषणा करा दी कि कोई भी अपने घर में भोजन न बनाए। सब लोग राजा के यहाँ भोजन करने आएं। जो इस आज्ञा का पालन नहीं करेगा, उसे फाँसी की सजा दी जाएगी। इस घोषणा के अनुसार सभी लोग भोजन करने गए। लेकिन लकड़हारा देर से पहुँचा, इसलिए राजा ने उसे अपने घर लिवा लिया और भोजन करा रहे थे, तभी रानी ने देखा कि उनका हार गायब है। रानी ने निश्चय किया कि यह लकड़हारा ही चोर है। सिपाहियों को बुलाकर उसे कारागार में डलवा दिया।
कारागार में लकड़हारा बहुत दुःखी होकर साधु को याद करने लगा। तत्काल बृहस्पति देव साधु के रूप में प्रकट हुए और उसकी दशा देखकर बोले, “तुमने बृहस्पतिवार का व्रत छोड़ा इसलिए यह सब हुआ।” लकड़हारा बोला, “हे प्रभो! मुझसे भूल हो गई। अब मैं व्रत रखूंगा।”
बृहस्पति देव बोले, “यह सत्य है कि राजा के यहाँ चोरी नहीं हुई। वह हार तो रानी के वस्त्र में ही छिपा है।”
इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए। लकड़हारे ने सिपाही से कहा कि वह राजा से कहे कि रानी का हार कपड़े में छिपा हुआ है। यह सुनकर रानी ने अपने वस्त्र में देखा, तो हार मिल गया। राजा ने लकड़हारे को बहुत सा धन देकर बिदा किया। लकड़हारे ने बृहस्पतिवार का व्रत करना शुरू कर दिया, जिससे उसे बहुत सा धन मिल गया। अब लकड़हारा जंगल में लकड़ी काटने नहीं जाता।
बृहस्पतिदेव की कृपा से महारानी को उनका खोया हुआ पति मिल गया और उन्हें भगवान बृहस्पति के व्रत का महत्व समझ में आया। उन्होंने जीवन भर इस व्रत का पालन किया और सुख-समृद्धि प्राप्त की।
जो व्यक्ति श्रद्धा एवं विश्वास के साथ बृहस्पतिवार व्रत कथा को पढ़ता या सुनता है, वह सुख-समृद्धि प्राप्त करता है।
ब्रहस्पति देव की आरती | Brihaspati Dev Ki Aarti
जय बृहस्पति देवा ओम जय बृहस्पति देवा ।
छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा ॥
जय बृहस्पति देवा ओम…
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी ।
जगतपिता जगदीश्वर,तुम सबके स्वामी ॥
जय बृहस्पति देवा ओम…
चरणामृत निज निर्मल,सब पातक हर्ता ।
सकल मनोरथ दायक,कृपा करो भर्ता ॥
जय बृहस्पति देवा ओम…
तन, मन, धन अर्पण कर,जो जन शरण पड़े ।
प्रभु प्रकट तब होकर,आकर द्घार खड़े ॥
जय बृहस्पति देवा ओम…
दीनदयाल दयानिधि,भक्तन हितकारी ।
पाप दोष सब हर्ता,भव बंधन हारी ॥
जय बृहस्पति देवा ओम…
सकल मनोरथ दायक,सब संशय हारो ।
विषय विकार मिटाओ,संतन सुखकारी ॥
जय बृहस्पति देवा ओम…
जो कोई आरती तेरी,प्रेम सहित गावे ।
जेठानन्द आनन्दकर,सो निश्चय पावे ॥
जय बृहस्पति देवा ओम…